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إلي يوم ...أعلنها الله فيه |
.... |
تأتي .. كفاصلة الندى |
وتمرمن صبح الهواءِ |
كأنها... |
سهمٌ نهاريٌ.. |
تنادي عشب فاطمة |
وتدخل.... |
ينحني صلصالها |
المنحوت من عنب السماء |
على أوائل قلبها |
ويسيل بين مروجها |
لتتم آيات التشكل.. |
حبلها السُّري |
موصول ٌ |
بكأس ٍ |
ومرايا.. |
بدؤها... |
نهرٌ |
وآخرها ... |
سماوات مؤجلة ٌ |
وأوسطها ... |
قرنفل |
روحها: |
ناي |
ودانتيلا |
وتلبس أجمل الأسماء |
ترفل |
بين هاءات الهوى |
الغافي |
وباء البوح |
تغزل منهم |
الاسم الأميري الذي |
من شهقة النور |
تنزّل .. |
كلما ابتسمت |
تحاصرها الأغاني |
في براح الخيزران |
ويفضح المخبوء |
من اسرارها..... |
غمازتان |
سميتها ليلى... |
.. وأخبزها ..هوى |
فتردني سطرا ً.. |
على حجر الغمام |
هي منتهي ماقاله وجدٌ |
وأول ماتسرب |
من هوى عال ٍ |
وأبهي ماتفتّح من يمام |
وهي التي انقسم الجمالُ |
على يديها..واحدا ًَ |
وهي التي تمت سناء ً |
وسنابل |
مَلأَت صباها |
واشتراها الوجد |
من دمها... |
وصفّاها |
ورقرقها |
جلاها |
ثم أوجعني بها |
يكتظ لؤلؤها |
فتشكوها |
ملائكة الزمرد |
كلما أغفو |
رمتني بالمقدس |
من مفاتنها |
ياويلها لغة ٌ |
أتت بي عند اسواركِ |
وانحازت إلى منفي |
فكيف أقول آيات الحنين |
ياصوتها |
من لثغة الياقوت رتبته ُ |
ومن شجن الخلاخل |
حين سماني |
رماني الناي |
في دمه ِ |
واغوتني البلابل |
فتحت ُ ناصية المدى |
وبكل ما أوتيت ُ من جهة ٍ |
ملأت ُ أصابعي |
واشرت ُ نحوكِ |
ربما نضج الأحبة |
في سنابلهم |
وأوجعني الهوى |
إلا قليلا |
أنت ِ المليحة كلها |
وأنا أحبك ِ |
ثم أنجو |
سهوا ً أحبك ِ |
ثم أنجو |
لك البلاد |
لي الرماد |
لك الغمام |
لي الغيوم |
لك الصبا |
ولي الصبابة كلها |
والكحل أنت ٍِ |
أنا السواد.. |
ينحني كالسيف عمري |
كي أطل عليكِ |
ثم أسل ّ ذاكرتي |
واجلو لحظة |
لأراك ِ فيها |
ثم اصرخ.... |
ها أنا.... |
جسد على باب القيامة |
أرتدي أبهى الجنازات |
وأرمي للحنين صبية |
فتقشر الحناء عن دمها البهي |
تمر اسمائي على ظلي |
فتنكرني.... |
وتعرفني صباباتي |
وآخر ما هجرت |
من البلاد |
فأينا يالحظة الميلاد |
أسبق للأميرة.. |
أينا ... |
يالحظة الميلاد |