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ثلاثون عاماً |
وها أنتَ تذهبْ |
أخذتَ |
وكم قد أخذتَ |
وطوفان سوئك يهربْ |
أطعتَ رمادك |
لم يبق |
ضوء اخضرار ٍ |
لجدبك يرهبْ |
حكمتَ |
بما لا يليق |
بشعب ٍ أبيّ |
بشعب ٍ |
لنهر الحضارة أنجبْ |
حكمتَ |
وعهدك طال |
تراخيتَ |
ثم تناسيتَ |
ما ينبغي أن تزيل |
وما ينبغي |
أن تضئ |
وكنتَ على النور تكذبْ |
أخذتَ البلادَ |
إلى مسلك ٍ |
أسود القسمات |
ولم تتأملْ |
ولم تتوقعْ |
بأنك يوماً ستخلع |
لم تتخيلْ |
ووجه البعيد يراك |
لوهمك تحلبْ |
تزوّر |
ثم تزوّر |
لا تستحي |
أو يلومك |
صوت الضمير |
ضميرك صار عميلاً |
وليس له |
من يطببْ |
ونشكو |
ونشكو |
وقصرك يضحك |
والغيظ فينا ينقّبْ |
ظننتَ بأنك |
سوف تظل |
على العرش |
حتى الممات |
ونجلك سوف يكون مكانك |
أنتم لمصر |
ومصر لكم |
لتمصوا دماء تقدمها |
هكذا كنتَ تحسبْ |
ثلاثون عاماً |
وأنتَ تبيع تواجدنا |
لنعيش وراء المخاوف |
والقمع نارك |
تلقي بها |
من يخالف |
أو من يعقّبْ |
نجوع |
ونشقى |
ولا تحتفي بهموم الجياع |
ومن يعبدون النفاق |
لكي يربحوا جيفة ً |
من يديك |
لعهدك كم يمدحون |
بقولك كم يفرحون |
وأنتَ تصدّق |
والشعب يندبْ |
خدمتَ الفساد |
فصار يحبك |
حباً كبيراً |
ومن مصر |
كل العقارب تنهبْ |
خدمتَ الفساد |
وبعتَ البلاد |
بأبخس سعر ٍ |
لمستثمر ٍ |
لا يبالي |
وإقطاع مصر القديم |
يعود بوجه جديد |
ومن حزبك الوطنيّ |
تخرّج كل مخربْ |
لمصر الجديدة |
سوف نكون |
ونعمل |
حتى يشير النهار لنا |
فالسماء علينا تطبطبْ |
لمصر النظيفة |
سوف نسارع |
لن نتخلى |
عن الحلم |
فالحلم مكسبْ |
سنصنع فجراً |
يعادي الطغاة |
ولا يتغنى |
بغير المخاض |
لكل جميل ٍ |
فأيدي التواريخ |
تنظر فينا |
وتذهل |
والبعث تكتبْ |