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لتنزع بنفسك |
عشق القناعْ |
وخضْ في أمورك |
دون امتطاء نفاقٍ |
ودون اصطناعْ |
تلون نفسك |
في كل يومٍ |
بمليون لونٍ |
ولونك ضاعْ |
أترضى لذاتك |
هدم الحقيقة؟! |
والفعل دون رحيق اقتناعْ؟! |
أترضى لذاتك |
نفْي الوضوح |
لأرض الضياعْ؟؟ |
لتنزعْ |
بريق القناعْ |
وإن قد خسرتَ |
ستكسب ذاتك |
ذاتك ملأى |
بما سيعوّض |
ليس لإبحار شطّكَ |
ذبح التواجد |
والعيش دون ارتفاعْ |
أتحيا |
مع الزيف |
في دمه |
دونما أن تثور؟! |
وترضى |
بعيش الأرانب حيناً؟! |
وحينا بعيش الضباعْ؟! |
لتبصرْ كيانك |
كيف غدوتَ؟ |
فمرآة خطوك |
ليس لها |
أن تباعْ |
لتنزعْ |
وصايا القناعْ |
وعشْ ممسكاً بأيادي |
بساتين صدقك |
لا تنخدع بحضورٍ |
ولا بانقطاعْ |
لتنزعْ |
ولا تنجذبْ |
لخمور امتناعْ |
لتنزعْ |
جذور القناعْ |
أيمكن أن ترتضي |
أن يجيء سواك |
وينزعه غاضباً |
فتصير دميماً بأعينهم؟؟ |
لو أتيتَ لهم |
بحشود دفاعْ |
صهيل الحقيقة أقوى |
وبين العيون |
يضيء كأندى شعاعْ |
لتنزع قناعك |
كي يعرفوك |
وتعرفهم |
ويموت وحيداً |
خفيُّ الصراعْ |
لسوف تكون جميلاً |
وإن لم يكن |
فعزاؤك أنك |
سوف تظل |
بعين الربيع شجاعْ |