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هنا |
في الصعيدْ |
نكافح |
من أجل أحداق فجرٍ جديدْ |
عرفنا الحياة |
وقلنا لها |
لن نكون لوهم ٍعبيدْ |
تجذر فينا |
صهيل انتماءاتنا |
ويشاهدنا الضوء |
ننحت في الصخر |
والأمنيات وقودْ |
نغير |
ثم نغير |
والعزم ينجب بين يدينا |
فضاءات صدق ٍ |
نربي بها |
ما نريدْ |
هنا |
في الصعيدْ |
يناجي النخيل خطانا |
ويسقي الفؤاد |
بماء ٍ |
يسامر فينا |
عناداً ظليلاً |
فكيف |
لصقل المنى لا نجيدْ؟! |
هنا |
في الصعيدْ |
سمكنا الحضارة |
حتى علونا |
وصرنا أمام الوجودْ |
وآثارنا |
في ضمير التواريخ شمسٌ |
تحنط نبض الخلودْ |
تسافر فينا |
دماء المروءة |
نحو منابعها |
والمبادئ تقفو خطانا |
وفينا يصلي الشهيق |
بمسجد أعماقنا |
والبكور نصيدْ |
ويسقي الزفير توجهنا |
لعناق الحقيقة |
إن بلوغ الحقيقة عيدْ |
هنا |
في الصعيدْ |
وجوه المعابد |
ترنو لأفكارنا |
وتزور دواخلنا |
لترى ما سنفعل |
كي للزمان نقودْ |
أقمنا طريقاً |
يغازل أمجادنا |
لتسير عليه |
وكي نصل البعث |
قبل انهيار الأوان |
ونشرح صدر الليالي |
أقمنا |
وسوف نؤم المزيدْ |
هنا |
في الصعيدْ |
صلابة زند ٍ |
وأمطار روح ٍ |
تؤسس فتحاً |
لنشبع |
جوع الدروب |
لوقت ٍرغيدْ |
ستحكي الخيول |
وتشدو |
بما يتراءى |
وتركب دهشتها |
لتراقص نهضتنا |
في زفاف السماء |
لموج رؤانا |
وتلك خلايا النجوم شهودْ |
هنا |
في الصعيدْ |
كلام السنابل يأسر |
والصوت فاح |
شذى عرق ٍ |
من أناس ٍ |
لبعث الرقيّ جنودْ |
فيا أيها النيل |
كن شاهداً |
قد أقمنا طريقاً |
كأن خطانا عليه |
عصافير سعي ٍ |
تروح خماصاً |
وتأتي بطانا |
وتملك أجنحة ً |
من صمودْ |
فيا أيها النيل |
كن شاهداً |
ما نزال |
نعتق فينا وفاءً |
لصنع غد ٍ |
لا يكون التخلف |
مهداً له |
أو نزوجه |
من دماء القيودْ |
أقمنا طريقاً |
هنا |
وهنا |
سيظل الطريق سعيدْ |