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ماضٍ إلى المنفى |
ولا منفى سوى |
ما خطّهُ الغرباءُ |
فوق الأرصفةْ.. |
قيّدْتُ حلمي |
وامتطيتُ غمامةً |
وعرجْتُ سهواً |
في السّماءِ المنصِفةْ.. |
وتركْتُ خلفي |
قلعتي ودفاتري |
وقصيدةً ثكلى |
ودنيا مقرفةْ.. |
ظمآنُ يا وطني |
فؤادي يابسٌ |
مرّرْ نداكَ على فمي |
كي أرشفَهْ.. |
ما الحزنُ حزني |
إنما هو سرُّ جذْبٍ |
للمدى |
حيثُ الجراحُ مصفّفةْ.. |
ماضٍ ودمعُ يتيمةٍ |
في مقلتي |
أبّتْ على الدنيا |
بعينٍ مرجِفةْ.. |
هي هكذا |
روحٌ تجلّى موتُها |
أحيَتْ طقوسَ الجوعِ |
دونَ الأرغفةْ.. |
ماضٍ وطفلُ القصفِ |
في حلَكِ الأسى |
يقتاتُ |
من ظلمِ الحياةِ المسرفةْ.. |
ماضٍ وشيخٌ |
غارقٌ في قهرهِ |
تجتاحُهُ الحسراتُ |
حدَّ الصّفصفةْ.. |
ماضٍ أجرُّ الجُرحَ |
من جلبابهِ |
وطفقْتُ أخصِفُ |
عُرْيَ كلِّ المعرفةْ.. |
شابَ الكلامُ |
على شفيرِ هزائمي |
فات الأوانُ |
لكي أقبّلَ أحرفَهْ.. |