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أمن ضوء تفاحة |
بدأ الكون؟ |
أم بدأ الكون |
من ندم، |
عاصف |
في الضمير؟ |
وكيف غدا آدم |
سيدا؟ |
حينما اندلعت |
بين كفيه شمس الحصى؟ |
حينما شاع في الريح |
عطر رجولته؟ |
حينما جاءت امرأة: |
جعلت |
من يديه |
إلهين |
ثم استحالت بسحرهما امرأة |
من لظى، |
وحرير |
تتلألأ |
مبتلة برنين الينابيع، |
ممزوجة |
بغيوم السري...؟ |
كيف جاءت إليه؟ |
جلست |
عند أحزانه، |
واكتوت بلظى قدميه |
أشعلت |
دفء شهوته، |
ومصابيحه، |
ورماد يديه... |
عند زهر أنوثتها أنحني |
أتشظى. يداي |
إلهان منتشيان، |
وملء إهابي غيم قديم، |
يعذبني، ولهيب |
تحول بردا، وحولني |
موقدا |
تنفخ الريح عن دمه |
كل هذا الرماد |
تعبي ضوء أغنية |
تتآكل، |
أيام آدم تأخذه |
أين غاباته؟ |
وبراريه؟ |
أية سيدة |
تخلع الآن أظفاره؟ |
وتمجد شهوته، |
وذراعيه؟ |
ماذا فعلت |
بأيام آدم |
يا شهرزاد؟ |
كيف شب على ركبتيك |
إلها حزينا؟ |
له جنة ليس يملكها، |
وطيور تناكده، |
وعباد؟ |
كلّ ثانية |
تنهب الريح حصتها |
من بهاء الشجر |
كل ثانية |
تقضم الريح ما تشتهي |
من عناد الحجر، |
كل ثانية |
تتشابه |
أيام آدم |
مثل قطيع حزين |
فمن |
روض، اليوم، للريح |
هذا الغزال الخطير؟ |
ألجام من الورد |
يقمع صبوته للبراري؟ |
أشئ من الوهم |
يشحذ شهوته |
للسرير؟ |
كيف |
صغت |
لوحشته |
جرسا |
لجنون |
يديه |
عبودية |
من |
حرير؟ |
ذي فصول تكرر خضرتها |
أم أساها؟ |
وحواء وهم |
تجدده الريح في كل أمسية |
شهريار! |
أكمين يضئ |
سريرك |
أم جسد من رماد الثمار؟ |
تلك حواء |
فضة ليل قديم |
تكررها الريح |
ثانية، |
فضة الفجر |
حواء، |
مازجها النوم، |
خالطها صخب الديكة، |
سقط الطير |
منتشيا بدم الشبكة، |
قطعة من سماء مجرحة |
بين كفيه، |
وانتشرت |
تملأ الريح بالوهم |
والحلم، |
نشوته المربكة ... |