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رسمتك أنثى
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*** |
رسمتك أنثى |
وقلت: أغامر |
وخططت شعرا |
كموج مسافر |
ولونت وجها |
كنور الصباح |
وجسما |
كسحر |
يشد النواظر |
وعينا |
كعين المها |
قد رسمت |
وظللت رمشا |
بريشة شاعر |
وأبدعت أنفا |
وثغرا |
وخدا |
وخططت حتى |
جمال الأظافر |
وحين تملك حبك قلبى |
رفضت بعنف |
جميع الخواطر |
تذكرت أنى |
نسيت أخط |
وأرسم قلبا |
يضم المشاعر |
** |
رسمتك أنثى |
بريشة ساحر |
وزاد إهتمامى |
بكل الأصاغر |
فكان لعين |
بريق وسحر |
وكان لوجه |
جمال السرائر |
وحين تبسم |
قلبى إليك |
لمحت الشكوك |
تهز الضمائر |
وذاك لأنى نسيت أبث |
لرسمك صدقا |
ينير البصائر |
** |
رسمتك أنثى |
وقلت: رفيق |
بدرب الحياة |
تعز الجواهر |
وكان لقائى |
برسمك عيدا |
فطيفك |
سوف يكون المسامر |
رسمتك أنثى |
فخابت خطوطى |
وطال اللسان |
بطول الضفائر |
وثرثر |
حتى كرهت الكلام |
وهيهات أقبل |
عشق الحناجر |
** |
رسمتك أنثى |
عشقتك أنثى |
وأرخيت مكرا |
جميع الستائر |
وأضمرت شرا |
وأقبلت زحفا |
لأنى بأرضك |
سوف أسافر |
وحين ضممتك |
بردا شعرت |
كأنى |
أضم |
عظام المقابر |
لأنى |
عجزت أبثك |
روحا |
فكنتِ خطوطا |
وكنتِ |
دوائر |