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يسقط بشارْ |
عاصي الأنوارْ |
من يدعي |
أن لديه |
فيض مقاومةٍ |
تردي الأعداء |
ولا يخجل |
هل أرجع |
معشار الجولان |
وحرره |
من أنياب استعمارْ؟!! |
كم يأخذنا |
حسن النيةْ |
فوق القصر الجمهوري الملكيّ!! |
أما طارت |
طائرة ٌ إسرائيليةْ |
لم تفعل شيئاً |
غير ركوب كلام ٍ |
عن حقك في الرد |
متى؟؟ |
لم يحدث |
يا ذاك الثرثارْ |
أتتاجر بالكلمات المثلى |
ليل نهارْ |
تدعي |
كم تدعي |
كي تبقى بطلاً وهمياً |
في عين الأفكارْ |
وأخذت الحكم |
وراثة طغيان ٍ |
ومضيت |
على درب القاتل |
لا حيدٌ |
أو إنكارْ |
لا تقسو |
إلا في حق الشعب الأعزل |
تضربه |
كم تضرب |
برصاص ٍ مخصوص ٍ |
أعمى الخفقات |
كسيده |
يقبل أن يطعن |
أصوات الثوارْ |
لم تصلح |
كي تربح |
قاعدةً شعبيةْ |
تحكم شعبك |
بالقمع |
ولا ترضى |
أن يسكن |
عند الحريةْ |
تقتل |
حتى تبقى |
في الحكم |
وحولك يلتف الأشرارْ |
لن تنجو |
لن تنجو |
هذا الشعب السوري الإصرارْ |
أكبر |
من قمعك |
أكبر |
من جيشك |
لن يخضع |
أو يرجع |
عما ينوي |
من عيش ٍ |
أو موتٍ |
في كون الأحرارْ |
ترخص دمنا |
وتريد بأن تبقى |
فوق الكرسي |
فما أغباك |
وأغبى حاشية ٍ |
تهديك |
إلى نيران طريقٍ |
منزوع السويةْ |
يسقط بشارْ |
عاصي الأنوارْ |
كم من طفل ٍ |
ذبّحه |
ببشاعة نقمته |
وأصابعها الوحشيةْ |
يا فرعون العصر الحالي |
لن تنجو |
من غرق ٍ |
هذا شعبك |
بحرٌ |
لن تعبره |
والثورة عند الشط |
لسوف تراكَ |
بفك اليم |
وتثأر |
ممن أزهق |
روح الأقمارْ |
م |