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أحترم الكبيرْ |
لسنه |
ودوره المشكورْ |
ورأيه له لديّ |
أكبر التقديرْ |
يملك خبرة ً |
بما ينفع |
أو ينيرْ |
وعنده |
تحل أعقد الأمورْ |
إن الكبار |
منبع الحياة |
من لهم تلجأ |
خطوة الصغيرْ |
أنا أحبهم |
لما قد فعلوا |
أفنوا شبابهم |
لأجلنا |
لكي نحيا على أرض السرورْ |
سوف أظل |
أخفض الصوت لديهم |
فإن الصوت |
لو علا |
يصير مثلما صوت الحميرْ |
في كل مطلب ٍ |
أجيبهم |
ولا أغفل |
عن حاجاتهم |
وخلفهم أسيرْ |
أحترم الكبيرْ |
لأنه |
كم بذل الكثيرْ |
في رحلة الحياة |
نرتقي إلى التعامل الذي |
بنا جديرْ |
فكل إنسان |
بفعله |
ينم عن كيانه |
إذا كان عظيماً |
أو حقيرْ |
أنا الصغيرْ |
وهذه الحياة |
لن تتركني كما أنا |
سوف أكون مثلهم |
ما دمت في مسالك الأيام |
فالأيام تدورْ |
لو كان لي رأيٌ |
أراه نافعاً |
أسخو به |
في ظل أوفى أدب ٍ |
ورأي غيري |
لا أذمه |
فهكذا أنا |
أنا الصغيرْ |
وإنما |
عقلي كبيرْ |