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إلى روح الطيار الأردني معاذ الكساسبة الذي أحرقته داعش حياً |
رأيتُ الدموع على خد قلبي |
تئن |
وتلعن فكر الظلامْ |
فما هدف الدين |
إلا انتشار المحبة |
تحت ظلال السلامْ |
وأنتم عدو الحياة |
عدو التعايش |
يا معشر الجهلاء |
بأي المبادئ |
في غيركم تذبحون |
بلا أي ذنب ٍ |
سوى أنه ليس منكم؟! |
فأين التسامح؟ |
أم أنكم لروائحة تعدمونْ؟! |
ألا لعنة الله |
سوف تطاردكم |
أينما تذهبونْ |
فأنتم |
لمن ينشد الكفر |
كم تخدمونْ |
وتعطونه فرصة ً كالرصاص |
لكيما يذم |
ويُعرض |
يا عملاء الأبالسة المنتقينْ!! |
*** |
بأي القلوب |
لوجهك قد أحرقوا؟؟ |
أيها الداعشي |
خسرتَ مصيرك |
سوف تظل |
تظن الغبار شموساً |
وتشنق فيك |
معاني الضياءْ |
وتحمل أسلحة ً |
من فجور ٍ |
وتشرب |
كأس الدماءْ |
فأي حياة تعيش |
وأنت رهينٌ |
لكل المساوئ |
دون حياءْ؟!! |
وأنت تصر |
على مسلك السوء |
دون بصيص انتهاءْ؟!! |
خسرت مصيرك |
كي تنصر السفهاءْ!! |
*** |
بأي القلوب |
لوجهك قد أحرقوا؟؟ |
هم موالي الأراجيف |
والفكرة الخائنةْ |
فيا أيها الداعشي |
أتبقي تعيش |
على جيفة القبح؟!! |
والقسوة الماجنةْ؟! |
لباطلكم تهرعون |
وفي غيركم تحرقون |
فأي الشرائع |
ترضى بما تفعلون؟؟ |
وهل تحسبون |
بأن الحقيقة |
مثل توجهكم |
قد تخونْ؟! |
يمولكم |
من يمولكم |
وفضائحكم تعبدون!! |
*** |
بأي القلوب |
لجسمك قد أحرقوا؟؟ |
كم لدرب الشياطين |
من أولياءْ |
يفوقونهم |
في امتلاك الضلالة! |
والجري خلف الغباءْ! |
رأيت الدموع على خد قلبي |
تئن |
فليسوا |
من المسلمين |
وكل الديانات منهم براءْ |
أتقتل هذا؟ |
وتذبح ذاك؟ |
وتزعم أنك |
لله أقرب؟؟! |
هذا لعمري |
أشد افتراءْ |
فيا أيها الداعشي |
خسرت مصيرك |
فكرك حقاً مصابٌ |
بأخبث داءْ |
ولن تستمر |
ستجتث |
كل جذورك |
حتى تعود كذئب كسيح ٍ |
يموت |
أمام عيون التجاءْ |
بأي القلوب |
لجسمك قد أحرقوا؟! |
أحرقوا الجسم |
لكنها الروح |
سوف تظل |
تحلق بين السماءْ |
شعر: ياسر الششتاوي |
م |