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في طاولةٍ، |
وأنا الرجلُ المحضُ، |
وحيداً أجلسُ .. |
أوْدَعَنِي الّليلُ |
على طاولةٍ وحدي . |
وهي امْرةٌ مَحْضٌ، |
تغزِلُ عمرَ الحبِّ وتنقُضُهُ، |
ثُم تعودُ وتغزِلُهُ .. |
طاولتي، |
أوسعُ من كأس ٍ فارِغةٍ |
ويدٍ تمتدُّ إلى الوهم ِ |
وأضيقُ مما أحملُ .. |
يا امْرأةً |
تنثُرُني في الكون ِ |
لتجمعني، |
رجلاً مَحْضاً |
لا يكتبُ، |
إلا في عينيها |
الشاردتينِ |
الغاضبتين ِ |
الناعستين ِ |
الباحثتين ِ عن الحبّ |
بعينيّ |
الشاردتين ِ |
الغاضبتينْ . |
ترمُقُني من بُعدٍ .. |
فأراها خلفَ بحارِ الدنيا |
مملكةً، |
لا يدخُلُها غيري . |
أضعُ السيفَ |
وكلّ عتادِ الحربِ |
وأخلعُ نعليَّ |
لأدخُلَ مملكتي . |
مملكتي، |
تُشهرُ سيفَ الحبّ بوجهي |
وتقولُ تأخّرتَ .. |
تأخّرتُ |
تأخّرتُ |
لأنّي .. |
لاعُذرَ لديكَ، تأخّرتَ، |
وعُد من حيثُ أتيتَ . |
فعُدتُ إلى طاولةٍ |
أوسعُ من كأسٍ فارِغةٍ |
ويدٍ تمتدُّ إلى الوهم ِ . |
كتبتُ الفصلَ الأوّلَ |
من قصّتنا: |
رجُلٌ محضٌ، |
وامرأةٌ محضٌ، |
وغيابٌ يجمعُ بينهُما .. |
ليعودا، |
قلبين ِ |
بعيدين ِ |
قريبين ِ |
حبيبين ِ |
غريبينْ . |
قصّتنا أطوَلُ |
من هذا الليلِ، |
وأوسعُ من طاولتي .. |
كيفَ أُريقُ الحبرَ على طاولةٍ |
لا تحملُ إلا كأساً فارغةً |
ويداً تمتد إلى الوهم ِ؟ |
وكيفَ أُحمّلُ هذاالليلَ القاصِرَ |
فيضَ جنوني؟ |
سأعودُ إلى الغُرفةِ، |
كي لا يسخرَ هذا البردُ القارصُ |
من عَرَقِي .. |
فالمشوارُ طويلٌ |
واللغةُ العربيةُ لا تُسعِفُني |
حتى في الغُرفةِ .. |
يبدو أن فرنسا لا تفهمُني! |
لا بأسَ |
كِلانا لا يفهمُ صاحبهُ . |
لكن حبيبةَ قلبي، |
لا تفهمُني أيضا .. |
تلكَ مُغامرةٌ أخرى |
في لغةِ العشق ِ |
وثرثرةِ المهزومينْ . |
الحربُ هنا، |
باردةٌ جداً .. |
ليس بها غيرُ الصمتِ، |
وبعض ِ الكلماتِ المدروسةِ |
حتى الموتْ . |
ما أصعبَ أن تكبُرَ |
فيكَ اللغةُ العربيّةُ |
ثمّ تشيخَ |
وتُصبِحَ لغةً أخرى .. |
تلك أُصولُ اللُّعبةِ، |
جَمِّلها بقليلٍ مما تضعُ |
الباريسيّاتُ إذا شِخْنَ |
على أوجُهِهِنَّ، |
وقُل: هذي لُغتي .. |
هذا كذبٌ |
لُغتي طفلٌ، |
لا يُنهِكُهُ الحبُّ . |
سأحملهُ في الصدرِ |
وأسقيهِ بقلبي |
حتى ينفُذَ جورِياً في خدّيها .. |
وأقول لها: |
هذي لُغتي . |