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ماذا ترى لويعلمون... |
هؤلاء الجالسون |
جوارنا.. |
والواقفون.. |
حول طاولةٍ تحفُّ |
بها المشارب..والصحون |
زوجكِ المشغول بالأكل |
هناك.. |
وزوجتي.. |
والأخرون! |
يتحدثون..ويلغطون.. |
ويأكلون..ويشربون.. |
لايلحظون.. |
أنَّا هناك..صامتون! |
نتبادل النظرات في قلقٍ |
ونأكل..في سكون! |
ونقلِّب الذكرى اللتي.. |
أكلت دفاترها السنون! |
*** |
لا تتركيني!.. |
خلِّي عيونكِ تستقرُّ |
على جبيني.. |
عدِّي حبيبات العرق! |
اقرأي ضعفي.. |
ويأسي.. |
وشجوني! |
وتأملي الأحزان في |
لون عيوني! |
هل ذلك لرجل الذي |
قد كان يعشق.. |
في جنونِ! |
لا تطرقي.. |
لا..تتركيني.. |
مرِّي على جوع شفاهي.. |
انفضي منها غبار |
الملح.. |
أو عفن السكونِ! |
ألقي عيونك في |
ضياع يدي.. |
ناجي بكاء أصابعي |
الملقاة مابين الصحون! |
تأمليني.. |
ألقي الحنين..عل الحنينِ! |
خلِّي عيونك مثلما |
باعت قديماً.. |
تشتريني! |
*** |
هذه..هي زوجتي! |
غيورةٌ جداً.. |
تكاد تغار من أمي |
وباقي أخوتي! |
تأملي نظراتِها.. |
نظرةٌ جهة النساء.. |
ونظرةٌ..جهتي! |
ماذا ترى لوعلمت.. |
أن جارتها على الكرسي.. |
كانت..فتنتي! |
وأنها شربت كثيراً |
قبلها.. |
من شفتي! |
وأنني مازلت أخزن |
عطرها.. |
في رئتي! |
وأنها.. |
لولا ظلام دروبنا.. |
كانت ستصبح.. زوجتي! |
*** |
عيناكِ ذابلتان |
ياعمري.. |
ووجهكِ شاحبُ! |
أين في عينيكِ |
ذاك الحلم.. |
ذاك النور.. |
ذاك القاربُ؟ |
أين شمساً.. |
كنتُ أحسب أنها.. |
لا تغربُ! |
مابال دمعكِ |
بين جفنيكِ.. |
يروح..ويذهبُ! |
كنت أعلم أنه |
رجلٌ..دنئٌ..كاذبُ! |
فبأي ربحٍ..بعتني |
من أجله.. |
وتركتني أتعذبُ! |
عامان مرَّا |
من زواجكِ منه.. |
هذا الثعلبُ! |
فهل فهمتِ الآن |
أن الحب..ليس يُركُّبُ!! |
أنا لست أشمت فيكِ.. |
لكني..جريحٌ |
غاضبُ! |
فلتبكِ عمركِ.. |
ضاع في منفاه.. |
واحترق المدى.. |
والكوكبُ! |