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وهلْ كانَ ليلكِ مثل لياليَّ |
دونكِ، عتماً |
ومحضَ هباءْ؟ |
وما للشموع احتراق |
ونورٌ، بغير اللقاءِ |
وإن عطّرتْها |
أمانٍ عِذابٌ.. وتسبيحُ ماءْ!. |
مضى اللّيلُ دونكِ |
كالياسمينِ |
أريجاً يعزّي |
ويدعو |
لحزني |
وحرمانِ روحي |
وجرحي... |
بطولِ البقاءْ! |
وكان النهار وتحت الضياء |
غرابا وغولْ |
همى فوق صدري |
أبابيل صخر |
فأصبح قلبي َ |
عصفاً أَكولْ! |
أغني |
وفي القلب حزنٌ يمنّي |
صباحاً لجرحٍ |
ونوماً يطولْ! |
هو الوعد يغفو |
بقلب سقيمْ |
ويشدو حزيناً |
تراتيل شوقٍ |
وئيدِ الخطى |
كحصان كليم |
ويمتدّ درب الزمان طويلا |
فلا القلب يهدا |
ولا الدرب يوصل أرض اللقاء |
وذاك النعيمْ |